मेरी यह कविता गुजरात के वास्तविक दर्द को बयां करती है जो अनछुए रह गए छद्म सेकुलर लोगों के बीच.दोस्तों गोधरा में ट्रेन में जले लोगों के परिवार का दर्द और दंगों में मारे गए लोगों का दर्द एक है जिसे  अलग- अलग कर इंसानों को धर्म के हिसाब से देखा गया. मैं मानता हूँ हो हुआ था वह दुखद था पर जिस तरह से मीडिया ने पक्षपाती तरीके से इसे रखा उसने फिर से साम्प्रदायिकता की आग में घी डालने का काम भी किया है. दोनों पहलुओं को रखना था पर यह काम उन्होंने नहीं किया जिसे मैं आपके सामने रख रहा हूँ..देशवासी सभी ये प्रण करे की दोबारा ऐसी क्रिया प्रतिक्रिया न हो..

"माना जिन्होंने किये थे दंगे वो हाँथ थे हैवान, पर जो जलकर मरे ट्रेन में वो भी थे इन्सान.
इन्सान इन्सान है होता मत बाँटो इसे धर्मो में, मरता है इन्सान इन दंगों और अधर्मो में.
वोट बैंक की खातिर सिर्फ रोते रहे दंगो पर, क्या कभी आंसू बहे थे जले हुए उन अंगों पर?
उस ट्रेन में भी किसी के बाप भाई और दद्दू थे.क्या उनका यही कसूर था की वो सारे हिन्दू थे?"  

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